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सूक्त 36
१ प्र वो यव्ह्मं पुरूणां विशा देवयतीनाम् । अग्नि सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ।।
(देवयतीनाम्) देवत्वको प्राप्त करनेके लिए यत्नशील (पुरूणां विशां) अनेक प्रजाओंके (यहं) स्वामी (अग्निम्) अग्निदेवको हम (व:) तुम्हारे लिए (सूक्तेर्भि: वचोभि:) पूर्ण भावाभिव्यंजक वचनोंसे (प्र ईमहे) खोज रहे हैं, (यं) जिस अग्निको (अन्ये इत्) दूसरे लोग भी (सीम्) हर जगह (ईळते) पाना चाहते हैं । २
जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विषेम ते । स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ।।
(जनास:) मनुष्य (अग्निमू) अग्निदेवको (सह:-वृधम्) शक्तिवर्धकके रूपमें (दधिरे) अपने अन्दर धारण करते हैं । (हविष्मन्त:) भेंटोंको लिए हुए हम (ते) तेरे प्रति (विधेम) .यज्ञका अनुष्ठान करते हैं । (स: त्व:) सो वह तू (नः) हमारे लिए (अद्य) आज ही (सुमना:) सुमना:, पूर्णतासे युक्त मनवाला (भव) बन और (इह) यहाँ (वाजेषु) ऐश्वर्यकी प्राप्तियोंमें (अविता भव) हमारा रक्षक बन सन्त्य) हेत्स्वरूप ! हे सत्ताके सत्य !
३
प्र त्या दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चथो दिवि स्पृशन्ति भानव: ।। ३८३ (त्वा दूतं प्र वृणीमहे) हम तुझे अपने दूतके रूपमें वरण करते हैं, जो (होतार) हविका पुरोहित है (विश्ववेदसम्) विश्व-ज्ञानसे सम्पन्न, सर्वज्ञ है । (मह: ते सत:) जब तू अपनी सत्तामें महिमा-युक्त होता है तब (अर्चय:) तेरी ज्वालाएं (वि चरन्ति) व्यापक रूपसे विचरण करती हैं, (ते भानव:) तेरी दीप्तियां (दिवि स्पृशन्ति) द्युलोकोको स्पर्श करती हैं । ४
देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रलमिन्धते । विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्य: ।।
(देवास:) सब देव, (वरुण: मित्र: अर्यमा) वरुण, मित्र, अर्यमा भी (त्वां प्रत्नम् दूतम्) तुझ पुरातन दूतको (सम् इन्धते) पूरी तरह प्रदीप्त करते हैं । (अग्ने) हे अग्निदेव ! (य: मर्त्य:) जिस मरणधर्मा मनुष्यने (ते ददाश) सब कुछ तुझे दे दिया है (स:) वह (त्वया) तेरे द्वारा (विश्वं धन जयति) सम्पूर्ण ऐश्वर्य जीत लेता हैं । ५
मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि । ते विश्वा सङ्गतानि व्रता ध्रुबा यानि देवा अकृण्वत ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (मन्द्र: होता) तू यज्ञका आनन्दोल्लसित पुरोहित है, (गृहपति:) इस घरका स्वामी है और (विशाम्) प्रजाओंका (दूत: असि) दूत है । (त्वे) तुझमें (विश्वा ध्रुवा व्रता) कर्मके सारे अविचल नियम (सङ्गतानि) एकत्र स्थित हैं (यानि) जिन्हें (देवा: अकृण्वत) देवोंने बनाया है ।
६
त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठय विश्वमा हूयते हवि: । स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्त्सुवीर्या ।।
(यविष्ठच अग्ने) हे युवा और शक्तिशाली अग्निदेव ! (सुभगे त्वे इत्) क्योंकि तू आनन्दसे समृद्ध है, इसलिए तुझमें ही (विश्वं हवि:) प्रत्येक हवि (आ हूयते) डाली जाती हैं । (स: त्वं सुमना:) इस कारण मनकी पूर्णतासे युक्त वह तू (नः) हमारे लिए (अद्य) आज (उत अपरम्) और आजके बाद भी (देवान्) देवोंके प्रति (सुवीर्या) पूर्णतायुक्त शक्तियोंको (यक्षि) अर्पित कर । ३८४ ७
तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । होत्राभिरग्निं मनुष: समिन्धते तितिर्वासो अति त्रिध: ।।
(तं घ ईम्) उसकी ही (नमस्विन:) आत्मसमर्पण-कर्ता मनुष्य (स्व- राजम्) आत्म-शासकके रूपमें (उप आसते) उपासना करते है । (त्रिधः अति तितिर्वास: मनुष:) जब मनुष्य अपनी बाधक और विरोधी शक्तियों-को जीतकर पार कर लेते हैं तब वे (होत्नाभि:) हवियोंकी महानतासे (अग्निं सम् इन्धते) अग्निको पूरी तरह प्रज्वलित करते हैं ।
८ ध्नन्तो वृत्रमतरन् रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । भुवत्कण्वे वृषा द्युन्याहुत: क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ।।
(वृत्नाम् अप ध्नन्त:) आच्छादक वृत्रपर प्रहार करते हुए वे (रोदसी) द्युलोक और पृथ्वीलोक दोनोंको (अतरन्) पार कर जाते हैं और (उरु) विस्तृत राज्यको (क्षयाय चक्रिरे) अपना धर बना लेते हैं । (वृषा) वह शक्तिशाली अग्निदेव (आहुत:) आहुतियोंसे पुष्ट होकर (कण्वे) कण्वमें [ मेधावी यजमानमें ] (द्युम्नी) एक ज्योतिर्मय ऊर्जा-शक्ति (भुवत्) बन जाए, (गो- इष्टिषु) गौओंकी चरागाहों [ गोष्ठों ] में (क्रन्दत्) हिनहिनाता हुआ (अश्व:) जीवनका अश्व ( [भुवत् ] बन जाए ।
९
सं सीदस्व महीं असि शोचस्व देववीतम: । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ।।
(सं सीदस्व) तू अपना सुस्थापित आसन ग्रहण कर । (महाँ असि) तू विशाल है । (देववीतम:) देवत्वको पूरी तरह प्रकट करते हुए (शोचस्व) अपनी पवित्रतामें चमक । (मियेध्य अग्ने) हे यज्ञिय अग्निदेव ! (प्रशस्त) विशालतासे अभिव्यक्त हुआ तू (अरुषं दर्शतम् धूमम्) भावावेश-के रक्तवर्ण, क्रियाशील और अन्तर्दृष्टि-पूर्ण धुएँको (वि सृज) प्रसारित कर ।
10-11
यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिथि र्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुत: ।।
यमग्निं मेध्यातिथि: कण्व ईध ऋतादधि । तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ।।
(हव्यवाहन) हे हविका वहन करनेवाले ! (यजिष्ठं यं त्वा) यज्ञके लिए अत्यधिक शक्तिशाली जिस तुझको (देवास:) देवोंने (मनवे) मनुष्यके लिए (इह दधुः) यहाँ निहित किया है, (यं) जिसको (कण्व: मेध्य-अतिथि:) कण्व मेध्यातिथिने (धनस्पृतं) अपने अभिलषित ऐश्वर्यको अधिकृत करनेवाले- के रूपमें (इह दधुः) यहाँ प्रतिष्ठित किया है और (यं [त्वा] ) जिस तुझको (वृषा) शक्तिशाली इन्द्रने और (उपस्तुतः) अपने स्तुतिगानसे तुझे सुप्रति-ष्ठित करनेवाले लोगोंने [ इह दधुः ] यहीं स्थापित किया है ।
(यम् अग्निम्) जिस अग्निको (मेध्यातिथि: कण्व:) मेध्य-अतिथि कण्वने (ऋतात् अधि) सत्यके आधार पर (ईधे) अत्यन्त उज्जवल रूपमें प्रज्वलित किया है, (तस्य) उसकी (इषः) प्रेरणाएं (प्र दीदियु:) देदीप्यमान हो उठें । (तमू अग्निम्) उस अग्निको (इमा ऋच:) ये पूर्णता-साधक ऋचाएं [वाणियां] (वर्धयामसि) बढ़ावे और [ तम् अग्निम् वर्धयामसि ] उसी अग्निको हम भी बढ़ावें ।
१२
रायस्तुर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्याप्यम् । त्वं वाजस्य श्रुत्यस्थ राजासि स नो मृळ महाँ असि ।।
(स्वधाव:) हे स्वयंस्थित अग्निदेव ! (राय:) हमारे आनन्दैश्वर्योंको (पूर्धि) परिपूर्ण बना । (हि) क्योंकि (अग्ने) हे अग्निदेव ! (देवेषु) देवोंमें (ते आप्यम् अस्ति) तेरी ही [ तेरे द्वारा ही ] क्रियाशीलता है । (त्वम्) तू (श्रुत्यस्य वाजस्य) अंतःप्रेरित ज्ञानकी सम्पदाका (राजसि) शासक है । (स: नः मृळ) सो ऐसा तू हमपर कृपा कर । (महान् असि) तू महान् है ।
१३
ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वो वाजस्य सनिंता यदञ्जिभिर्वाघद्धिर्विह्वयामहे ।।
(सविता देव न) सविता देवकी तरह तू (न: ऊतये) हमारे विकासके लिए (ऊर्ध्व: ऊ सु तिष्ठ) अत्यधिक ऊर्ध्वमें स्थित रह । (ऊर्ध्व:) उन ऊंचाइयों पर स्थित होकर ही तू (नः वाजस्य) हमारे ऐश्वर्यभोगका (सनिता) रक्षक बनता है (यत्) जब कि हम तुझे (अञ्जिभि: वाघद्धि:) अभिव्यक्त करनेवाले गीतोंसे (विह्वयामहि) पुकारते हैं । ३८६ १४
ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृषी न ऊर्ध्थाञ्वाथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुव: ।।
(ऊर्ध्व:) ऊर्ध्वस्थित होकर (केतुना) प्रत्यक्षज्ञान-युक्त मनके द्वारा तू (अंहस नः नि पाहि) बुराईसे हमारी रक्षा कर । (विश्वम् अत्रिणम्) हमारी सत्ताके प्रत्येक भक्षकको (सं दह) पूरी तरह दग्ध कर दे । (न:) हमें (चरथाय) कर्म करनेके लिए (ऊर्ध्वान् कृधि) ऊपर उठा । (देवेषु) देवोंमें (नः दुव:) हमारी यज्ञक्रियाका (विदा:) सम्यक् विभागकर ।
15
पाहि नो अग्ने रक्षस: पाहि धूर्तेरराव्:ण । पाहि रीषत उत मा जिघांसतो बृहद्धानो यविष्ठच ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (रक्षस:) राक्षससे (न: पाहि) हमारी रक्षा कर, (अराव्ण: धूर्ते:) आनन्दविरोधी वस्तुओंसे होनेवाली हानिसे ( [ नः ] पाहि) हमारी रक्षा कर, (रीषत: पाहि) उससे हमारी रक्षाकर जो हमपर आक्रमण करता है (उत वाजिघांसत:) और उससे भी जो हमारा हनन करना चाहता है, (बृहद्धानो) हे विशाल दीप्तिवाले ! (यविष्ठ्य) हे शक्तिशाली और युवा । १६
घनेव विष्यग्वि जह्मराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् । यो मर्त्य: शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ।।
(तपु:-जम्भ) हे शत्रुओंकी शक्तियोंको निगल जानेवाले ! अथवा दुःख-संतापका हरण करनेवाले ! (अराव्ण:) निरानंदकी सम्पूर्ण शक्तियोंको (घना इव विश्वक् वि जहि) मानों घनाघन पड़ती चोटोंसे पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दे अथवा उन्हें (घना इव) बादलोंकी तरह (विष्वक् वि जहि) चारों ओरसे तितर-बितर कर दे और (य: अस्मध्रुक्) जो हमसे द्रोह करना चाहता है उसे भी [ वि जहि] छिन्न-भिन्न कर दे । (य: मर्त्य:) जो भी मरणधर्मा मनुष्य (अस्तुभि:) अपने कार्योंकी तीव्र कुशलतासे (अति शिशीते) हमसे आगे बढ़ जाता हैं (स:) वह (नः रिपु:) हमारे शत्रुके रूपमें (मा ईशत) हमपर शासन न कर सके ।
१७
अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कष्याय सौभगम् । अग्नि: प्रावन् मित्रोत मेध्यातिथिमग्नि: साता उपस्तुतम् ।। ३८७ (अग्नि:) अग्निन ( कण्वाय) कण्वके लिए ( सुवीर्य वन्वे) पूर्णतायुक्त शक्तिको जीत लिया है और ( अग्नि:) अग्निने उसके लिये ( सौभगम्) पूर्णतायुक्त आनन्दोपभोगको ( वव्ने ) जीत लिया है । ( अग्नि:) अग्नि उसके लिए ( मिता प्र आवत्) सभी मित्रतापूर्ण वस्तुओंकी रक्षा करता है ( उत) और (अग्नि:) अग्नि ( उपस्तुतम् मेध्य-अतिथिम्) मेध्यातिथिको, जिसने उसे स्तुतिके गीतसे सम्पुष्ट किया हैं, ( सातौ [ प्र आवत् ] ) उसकी सत्तामें सदा सुरक्षित रखता है । १८
अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे । अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सह: ।।
(अग्निना) अग्निके द्वारा हम ( तुर्वशं यदुम्) तुर्वश और यदुका (परावत :) ऊर्ध्वलोकके राज्योंसे ( हवामहे) आह्वान करते हैं । ( अग्नि:) अग्नि (बृहतृ- रथं तुर्वीतिम्) बृहद्रथ और तुर्वीतिको [ अथवा विशाल आनंदपूर्ण तुर्वीतिको ] (नव-वास्त्वम्) नए निवासस्थानकी ओर ( नयत्) ले गया है, जो तुर्वीति ( दस्यवे सह:) शत्रुके विरोधमें शक्तिस्वरूप है ।
१९
नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टय: ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव, ( मनु:) मनुष्य ( त्वाम्) तुझे (शश्वते जनाय ज्योति:) शाश्वत जन्मके लिए ज्योतिके रूपमें ( नि दधे) अपने अन्दर स्थापित करता है । (यं) जिसे ( कृष्टय:) कर्मके कर्त्ता ( नमस्यन्ति) नमस्कार करते हैं ऐसा तू (ऋतजात:) सत्यमें प्रकट होकर और ( उक्षित :) सत्तामें वर्धित होकर (कण्वे) कण्वमें ( दीदेथ) अत्यन्त उल्वल रूपमें प्रज्वलित हो ।
२०
त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद् यातुमावतो विश्व समत्रिणं दह ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! तेरी ( अर्चय :) ज्वालाएं ( त्वेषास:) प्रचण्ड, ( अमवन्त:) बलशाली, ( भीमास:) भयानक हैं और ( प्रति-इतये न) ऐसी हैं जिनके पास पहुंचा नहीं जा सकता । ( सदम् इत्) सदा ही तू ( रक्षस्विन:) अवरोधक-शक्तियोंको, ( यातुमावत:) दुःखकी वाहक शक्तियों कौ और (विश्वम् अत्रिणम्) प्रत्येक भक्षकको भी ( सं दह) पूरी तरह भस्मसात् कर दे । ३८८ |